Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 344
________________ २५४ योग-शास्त्र येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥१४॥ स्फटिक मणि के सामने जिस रंग की वस्तु रख दी जाती है, मणि उसी रंग की दिखाई देने लगती है। आत्मा भी स्फटिक मणि के समान उज्ज्वल है। अतः वह जब जिस-जिस भाव से युक्त होती है, तब उसी रूप में परिणत हो जाती है। जिस समय वह विषय-विकारों का चिन्तन करती है, उस समय विषयी या विकारी बन जाती है और जब वीतराग भाव में रमण करने लगती है, तब वीतरागता का अनुभव करने लगती है। नासध्यानानि सेव्यानि कौतुकेनापि किन्त्विह। . स्वनाशायैव जायन्ते सेव्यमानानि तानि यत् ॥१५॥ अत: कुतूहल से प्रेरित होकर भी असद्-अप्रशस्त ध्यानों का सेवन करना उचित नहीं है । क्योंकि उनका सेवन करने से प्रात्मा का विनाश ही होता है। सिध्यन्ति सिद्धयः सर्वाः स्वयं मोक्षावलम्बिनाम्। . संदिग्धा सिद्धिरन्येषां स्वार्थभ्रशस्तु निश्चितः ॥१६॥ मुक्ति के उद्देश्य से साधना करने वालों को अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो ही जाती हैं। किन्तु, जो लोग उन्हें प्राप्त करने के लिए ही साधना करते हैं, उन्हें कभी वे प्राप्त हो जाती हैं और कभी नहीं भी होती हैं। हाँ, उनका आत्महित अवश्य नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि साधक का उद्देश्य–मुक्तिलाभ होना चाहिए, लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करना नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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