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योग- शास्त्र
होकर ही सब कार्य करना चाहिए। सूर्य की किरणों के अभाव भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए ।
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मैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् ।
दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ।। ५६ ।।
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रात्रि में होम, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन या दान करना भी उचित नहीं है, किन्तु भोजन तो विशेष रूप से निषिद्ध है ।
रात्रि भोजन का अर्थ
में कोई
दिवसस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते नक्तं तु तद्विजानीयान्न नक्तं निशि
दिवाकरे । भोजनम् ।। ५७ ।।
केवल रात्रि में भोजन करना ही रात्रि भोजन नहीं है, बल्कि दिन के आठवें भाग में जब सूर्य मंद पड़ जाता है, तब भोजन करना भी रात्रि भोजन कहलाता है ।
अन्य मत में रात्रि भोजन निषेध
देवैस्तु भुक्तं पूर्वा, मध्याह्न ऋषिभिस्तथा । अपराह्णे च पितृभिः, सायाह्न दैत्यदानवैः ॥ ५८ ॥ सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ ५६ ॥
हे युधिष्ठिर ! दिन के पूर्व भाग में देवों ने, मध्याह्न में ऋषियों ने, अपराह्ण में पितरों ने, सायंकाल में दैत्य और दानवों ने, संध्यादिन-रात की संधि के समय यक्षों और राक्षसों ने भोजन किया है । इन सब भोजन वेलाओं का उल्लंघन करके रात्रि में भोजन करना अभक्ष्य भोजन है ।
आर्युवेद का अभिमत
हृन्नाभिपद्म
संकोश्चण्डरोचिरपायतः ।
तो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि ॥ ६० ।।
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