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योग-शास्त्र
व्रत सापेक्ष होने से अतिचार रूप है। अर्थात् जब तक व्रती ऐसा समझता है कि मैंने व्रत भंग नहीं किया है, तब तक वह अतिचार है ।
टिप्पण-बन्धन, भाव, गर्भ, योजन और दान की अपेक्षा होने से उक्त पाँचों अतिचार हैं । पाँच अतिचारों में क्रमशः बन्धनादि पाँच सापेक्षताएँ हैं । यथा—किसी ने धन-धान्य का जो परिमाण रखा है, ऋण की वसूली करने पर उससे अधिक हो जाता है तो देनदार से कहना-'यह धन-धान्य अभी अपने पास ही रहने दो, चौमासे के बाद मैं ले लूंगा।' इस प्रकार बन्धन करने से अतिचार लगता है, क्योंकि उस धन-धान्य पर वह अपना स्वत्व स्थापित कर चुका है, फिर भी साक्षात् न लेकर समझता है कि मेरा व्रत भंग नहीं हुआ है।
बरतन-भांडे कदाचित् मर्यादा से अधिक हो जाएँ तो छोटे-छोटे तुड़वाकर बड़े बनवा लेना और संख्या को बराबर रखना, पशुओं की संख्या मर्यादा से अधिक होने पर उनके गर्भ की या छोटे बछड़े आदि की अमुक समय तक गिनती न करना, खेतों की संख्या अधिक हो जाने पर बीच की मेड़ तोड़ कर दो खेतों को एक बना लेना तथा सोना-चाँदी का परिमाण अधिक हो जाने पर कुछ भाग दूसरों के पास रख देना, यह सब अतिचार हैं। ६. दिगवत के अतिचार
स्मृत्यन्तर्धानमूधिस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः ।
क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चेति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥ १६ ॥ दिग्व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं-१. विभिन्न दिशाओं में जाने की, की हुई मर्यादा को भूल जाना, २-४. ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिर्यग-तिर्की दिशा में भूल से, परिमाण से आगे चला जाना, और ५. क्षेत्र की वृद्धि करना अर्थात् एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा का बढ़ा लेना, जिससे परिमाण से आगे जाने का काम पड़ने पर आगे भी जा सके।
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