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अष्टम प्रकाश
प्रच्याव्य-मानसं-लक्ष्यादलक्ष्ये दधतः स्थिरम् । ज्योतिरक्षयमत्यक्षमन्तरुन्मीलति क्रमात् ॥ २७ ॥ इति लक्ष्यं समालम्ब्य लक्ष्याभावः प्रकाशितः । निषणमनस्तत्र सिध्यत्यभिमतं मुनेः ॥ २८ ॥ समग्र जगत् को अव्यक्त एवं ज्योतिर्मय देखने के पश्चात् मन को धीरे-धीरे लक्ष्य से हटाकर अलक्ष्य में स्थिर करने पर, अन्दर एक ऐसी ज्योति उत्पन्न होती है, जो अक्षय होती है और इन्द्रियों से अगोचर होती है ।
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इस प्रकार यहाँ पहले लक्ष्य का आलम्बन करके अनुक्रम से लक्ष्य का अभाव बताया गया है, अर्थात् लक्ष्य का अवलम्बन करके ध्यान को प्रारम्भ करना चाहिए और फिर धीरे-धीरे लक्ष्य का लोप कर देना चाहिए, यहाँ ऐसा विधान किया गया है। जिस मुनि या योगी का मन अलक्ष्य में स्थिर हो जाता है, उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । प्ररणव का ध्यान
तथा, हृत्पद्ममध्यस्थं शब्दब्रह्मैककारणम् ।
स्वर- व्यञ्जन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ।। २६ ।। मूर्ध-संस्थित-शीतांशु - कलामृतरस - प्लुतम् ।
कुम्भकेन महामन्त्रं प्रणवं परिचिन्तयेत् ॥ ३० ॥ हृदय कमल में स्थित शब्द - ब्रह्म – वचन - विलास की उत्पत्ति के द्वितीय कारण, स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंच परमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चन्द्रकला से भरने वाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव 'ॐ' का – कुम्भक करके, ध्यान करना चाहिए । प्ररणव- ध्यान के भेद
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पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम् ॥ ३१ ॥
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