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योग-शास्त्र ध्यान का फल
महातत्त्वमिदं योगी यदैव ध्यायति स्थिरः। . .
तदेवानन्द-सम्पद् भूमुक्ति-श्रीरुपतिष्ठते ॥ २३ ॥ चित्त को निश्चल करके योगी जब इस महातत्त्व 'अहं' का ध्यान करता है, उसी समय आनन्द रूप संपत्ति की भूमि के समान मोक्ष-लक्ष्मी उसके समीप आकर खड़ी हो जाती है। इस ध्यान-साधना के द्वारा योगी समस्त कर्म-बन्धनों को क्षय करके निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेता है । ध्यान का अन्य प्रकार
रेफ-बिन्दु-कलाहीनं शुभ्रं ध्यायेत्ततोऽक्षरम् ।।
ततोऽनक्षरतां प्राप्तमनुच्चार्य विचिन्तयेत् ॥ २४ ॥ पहले रेफ, बिन्दु और कला से रहित उज्ज्वल 'ह' वर्ण का ध्यान करना चाहिए । फिर उसी 'ह' के ऐसे स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए, जो अनक्षरता को प्राप्त हो गया है और जिसका उच्चारण नहीं किया जा सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ध्यान-साधना में साधक को चिन्तन करते समय शब्दों का उच्चारण नहीं करना चाहिए ।
निशाकरकलाकारं सूक्ष्म भास्करभास्वरम् । अनाहताभिधं देवं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ।। २५ ।। तदेव च क्रमात्सूक्ष्मं ध्यायेद्वालाग्र-सन्निभम् ।
क्षणमव्यक्तमीक्षेत जगज्ज्योतिर्मयं ततः ॥ २६ ॥ पहले चन्द्रमा की कला के आकार वाले, सूक्ष्म एवं सूर्य के समान देदीप्यमान अनाहत देव को अनुच्चार्य मान और अनक्षर रूपता को प्राप्त 'ह' वर्ण को स्फुरायमान होते हुए चिन्तन करना चाहिए। फिर धीरे-धीरे उसी अनाहत 'ह' को बाल के अग्रभाग के समान सूक्ष्म रूप में चिन्तन करना चाहिए । तत्पश्चात् थोड़ी देर तक जगत् को अव्यक्तनिराकार और ज्योतिर्मय स्वरूप में देखना चाहिए।
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