Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 334
________________ २४४ योग- शास्त्र शिखा को देखता है । एक वर्ष के अभ्यास के पश्चात् वह ज्वाला देखने लगता है । उसके बाद संवेग की वृद्धि होने पर सर्वज्ञ के मुख कमल को देखने में समर्थ हो जाता है । इससे भी आगे चल कर कल्याणमय माहात्म्य से देदीप्यमान, सर्वातिशय से सम्पन्न और प्रभामण्डल में स्थित सर्वज्ञ को साक्षात् की तरह देखने लगता है । इतना सामर्थ्य प्राप्त होने पर साधक का चित्त एकदम स्थिर हो जाता है, उसे तत्त्व का निश्चय हो जाता है और वह संसार - अटवी को लांघकर सिद्धि के मन्दिर - मोक्ष में विराजमान हो जाता है, वह अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है । क्ष्व विद्या का ध्यान शशिबिम्बादिवोद्भूतां स्रवन्तीममृतं सदा । विद्यांवी इति भालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारणम् ||५७|| मानो चन्द्रमा के बिम्ब से उत्पन्न हुई हो — ऐसी उज्ज्वल, निरन्तर अमृत बरसाने वाली और कल्याण का कारणभूत 'क्ष्वी" विद्या का ललाट में चिन्तन करना चाहिए । शशि -कला का ध्यान क्षीराम्भोधेविनिर्यान्तीं प्लावयन्तीं सुधाम्बुभिः । भाले शशिकलां ध्यायेत् सिद्धिसोपान-पद्धतिम् ||५८|| क्षीर सागर से निकलती हुई, सुधा के सदृश सलिल से अखिल लोक को प्लावित करती हुई और मुक्ति महल के सोपानों की श्र ेणी के समान चन्द्रकला का ललाट में ध्यान करना चाहिए । शशि- कला के ध्यान का फल अस्याः स्मरण-मात्रेण त्रुट्यद्भव- निबन्धनः । प्रयाति परमानन्द-कारणं पदमव्ययम् ||५६|| चन्द्रमा की कला अर्थात् चन्द्र कला के समान प्रकाश का स्मरण करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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