Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 330
________________ २४० योग-शास्त्र शतानि त्रीणि षट्वर्णं चत्वारि चतुरक्षरम् । पञ्चावणं जपन् योगी चतुर्थफलमश्नुते ॥ ३६ ।। छह अक्षर वाली विद्या का तीन सौ वार, चार अक्षर वाली विद्या का चार सौ वार और 'अ' वर्ण का पाँच सौ वार जाप करने वाले योगी को एक उपवास का फल मिलता है।' प्रवृत्तिहेतुरेवैतदमीषां कथितं फलम् । फलं स्वर्गापवर्गों तु वदन्ति परमार्थतः ॥ ४० ॥ । इन विद्याओं के जाप का जो एक उपवास फल बतलाया है, वह इसलिए कि बाल जीव भी इसके जाप में प्रवृत्ति करें। इस जाप का असली फल तो ज्ञानियों ने स्वर्ग और मोक्ष ही बताया है। पञ्चवर्णमयी पञ्चतत्त्वा विद्योद्धृता श्रुतात् । अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेशं निरस्यति ॥४१॥ विद्याप्रवाद नामक पूर्वश्रुत से उद्धृत की हुई, पाँच वर्ण वाली पंचतत्त्वा विद्या का अगर सतत अभ्यास किया जाए तो वह समस्त भव-क्लेश को दूर कर देती है। वह विद्या इस प्रकार है-'हाँ ह्री ह ह्रीं ह्रः असिमाउसा नमः' । मङ्गलोत्तम - शरण - पदान्यव्यग्र - मानसः । चतुः समाश्रयाण्येव स्मरन् मोक्षं प्रपद्यते ।। ४२ ।। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म के साथ मंगल, उत्तम और शरण पदों को जोड़कर एकाग्र चित्त से स्मरण करने वाला ध्याता मोक्ष को प्राप्त करता है। १. मंगल-चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं, केवलि-पण्णत्तो-धम्मो मंगलं ।। १. छह अक्षर वाली विद्या-अरिहन्त-सिद्ध । चार अक्षर वाली विद्या-अरिहन्त । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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