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चतुर्थ प्रकाश
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३. प्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया, लोभ । ४. अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया लोभ ।।
संज्वलन कषाय की काल-मर्यादा पन्द्रह दिन की है, प्रत्याख्यानावरण की चार मास की, अप्रत्याख्यानावरण की एक वर्ष की और अनन्तानुबन्धी कषाय की जन्म-पर्यन्त की है। इतने काल तक इन कषायों के संस्कार रहते हैं।
संज्वलन की विद्यमानता में वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय साधुता-सर्वविरति संयम को उत्पन्न नहीं होने देता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय की मौजूदगी में श्रावकपन नहीं पाता और अनन्तानुबन्धी कषाय जब तक विद्यमान रहता है तब तक सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति नहीं होती। संज्वलन आदि कषाय क्रमशः देव-गति, मनुष्य-गति, तिर्यञ्च-गति और नरक-गति के कारण हैं। १. क्रोध-कषाय
तत्रोपतापकः क्रोधः क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्मतेर्वर्तनी क्रोधः क्रोधः शम-सुखार्गला ॥ ६ ॥ उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ १० ॥ क्रोधवह्नस्तदह्नाय शमनाय शुभात्मभिः ।
श्रयणीया क्षमैकैव संयमारामसारणीः ॥ ११ ॥ क्रोध शरीर और मन में संताप उत्पन्न करता है। क्रोध से वैर की वृद्धि होती है । वह अधोगति का मार्ग है और प्रशम-सुख को रोकने के लिए अर्गला के समान है।
क्रोध जब उत्पन्न होता है, तो सर्वप्रथम आग की तरह उसी को जलाता है जिसमें वह उत्पन्न होता है, बाद में दूसरे को जलाए अथवा न भी जलाए। तात्पर्य यह है कि जैसे प्रज्वलित हुई दियासलाई
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