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चतुर्थ प्रकाश
१२३ मानसिक विजय
तदिन्द्रियजयं कुर्यात्मनः शुद्धया महामतिः ।
यां विना यम-नियमैः काय-क्लेशो वृथा नृणाम् ॥३४॥ बुद्धिमान् पुरुषों का कर्तव्य है कि वे मन की शुद्धि करके इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें । मन की शुद्धि किए बिना यमों और नियमों का पालन करने से मनुष्य व्यर्थ ही काय-क्लेश के पात्र बनते हैं ।
टिप्पण-इन्द्रिय विजय के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है । मन इन्द्रियों का संचालक है, वही उन्हें विषयों की ओर प्रेरित करता है । मन पर काबू पा लेने से इन्द्रियों पर भी काबू पाया जा सकता है। मन शुद्ध नहीं है तो व्रतों के पालन से भी कोई लाभ नहीं होता, केवल काय-क्लेश ही होता है।
मनःक्षपाचरो भ्राम्यन्नपशङ्क निरंकुशः । प्रपातयति संसाराऽऽवर्तगर्ते जगत्त्रयीम् ॥ ३५ ॥ तप्यमानांस्तपो मुक्तौ गन्तुकामान् शरीरिणः। वात्येव तरलं चेतः क्षिपत्यन्यत्र कुत्रचित् ।। ३६ ।। अनिरुद्ध-मनस्कः सन् योग-श्रद्धां दधाति यः। पद्भ्यां जिगमिषुर्गामं, स पंगुरिव हस्यते ॥ ३७ ॥ मनोरोधे निरुध्यन्ते कर्माण्यपि समन्ततः । अनिरुद्धमनस्कस्य, प्रसरन्ति हि तान्यपि ॥ ३८ ।। मनः कपिरयं विश्व - परिभ्रमण - लम्पटः ।
नियन्त्रणीयो यत्नेन मुक्तिमिच्छभिरात्मनः ।। ३६ ॥ निरंकुश मन राक्षस है, जो निःशंक होकर दौड़-धूप करता रहता है और तीनों जगत् के जीवों को संसार रूपी गड्ढे में गिराता है।
आँधी की तरह चंचल मन मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक और तीव्र तपश्चर्या करने वाले मनुष्यों को भी कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है ।
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