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ससम प्रकाश
२२७ तत्पश्चात् शरीर के बाहर तीन कोण वाले स्वस्तिक से युक्त और अग्निबीज 'रेफ' से युक्त जलते हुए वह्निपुर का चिन्तन करना चाहिए । तदनन्तर शरीर के अन्दर महामंत्र के ध्यान से उत्पन्न हुई शरीर की ज्वाला से तथा बाहर की वह्निपुर की ज्वाला से देह और, आठ कर्मों से बने कमल को तत्काल भस्म करके अग्नि को शान्त कर देना चाहिए । इस तरह के चिन्तन को 'आग्नेयी-धारणा' कहते हैं। ३. वायवी-धारणा
ततस्त्रिभुवनाभोगं पूरयन्तं समीरणम् । चालयन्तं गिरीनब्धीत् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत् ॥ १६ ॥ तच्च भस्मरजस्तेन शीघ्रमुख़्य वायुनां ।
दृढाभ्यासः प्रक्षान्तिं तमानयेदिति मारुती ॥ २० ॥ आग्नेयी धारणा के पश्चात् समग्र तीन लोक को पूर देने वाले, पर्वतों को चलायमान करने वाले और समुद्र को क्षुब्ध करने वाले प्रचण्ड पवन का चिन्तन करना चाहिए। __ पवन का चिन्तन करने के पश्चात् आग्नेयी धारणा में देह और पाठ कर्मों को जलाने से जो राख बनी थी, उसे उड़ा देने का चिन्तन करना चाहिए, अर्थात् ऐसा विचार करना चाहिए कि प्रचण्ड पवन चल रहा है और देह तथा कर्मों की राख उड़कर बिखर रही है । इस प्रकार का दृढ़ अभ्यास करके उस पवन को शान्त कर देना चाहिए । चिन्तन एवं ध्यान की इस साधना को 'चायवी-धारणा' कहते हैं। ४. वारुणी-धारणा
स्मरेद्वर्षत्सुधासारैर्धनमालाकुलं नभः।। ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वारुणांकितम् ॥ २१॥ नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयेत्तत्पुरं ततः। तद्रजः कायसम्भूतं क्षालयेदिति वारुणी ॥ २२ ॥
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