________________
सप्तम प्रकाश
२२५
पिण्डस्थ-ध्येय में १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुती, ४. वारुणी, और ५ तत्वभू-यह पांच धारणाएँ होती हैं। १. पार्थिवी-धारणा
तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धि तत्र चाम्बुजम्।। सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीप-समं स्मरेत् ॥ १० ॥ तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिङ्गप्रभाञ्चिताम् । स्वर्णाचल-प्रमाणां च कर्णिकां परिचिन्तयेत् ॥ ११ ॥ श्वेत - सिंहासनासीनं कर्म - निर्मूलनोद्यतम् ।
आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ ॥ १२ ॥ हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं उसका नाम तिर्यक्-लोक अथवा मध्यलोक है । मध्य-लोक एक रज्जु प्रमाण विस्तृत है। इस मध्य-लोक के बराबर लम्बे-चौड़े क्षीरसागर का चिन्तन करना चाहिए। क्षीर-सागर में जम्बू-द्वीप के बराबर एक लाख योजन विस्तार वाले और एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का चिन्तन करना चाहिए । उस कमल के मध्य में केसराएँ हैं और उसके अन्दर देदीप्यमान पीली प्रभा से युक्त और मेरु पर्वत के बराबर एक लाख योजन ऊँची कणिका है, ऐसा चिन्तन करना चाहिए। उस कणिका के ऊपर एक उज्ज्वल सिंहासन है। उस सिंहासन के ऊपर आसीन होकर कर्मों का समूल उन्मूलन करने में उद्यत अपने आपका चिन्तन करना चाहिए। चिन्तन की इस प्रक्रिया को 'पार्थिवी-धारणा' कहते हैं। २. आग्नेयी-धारणा.
विचिन्तयेत्तथा नाभौ कमलं षोडशच्छदम् । कणिकायों महामन्त्रं प्रतिपत्रं स्वरावलिम् ॥ १३ ॥ . रेफ-बिन्दु-कलाक्रान्तं महामन्त्रे यदक्षरम् । तस्य रेफाद्विनिर्यान्तीं शनै— मशिखां स्मरेत् ॥ १४ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org