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सप्तम प्रकाश
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पिण्डस्थ ध्यान का माहात्म्य
श्रान्तमिति पिण्डस्थे कृताभ्यासस्य योगिनः । प्रभवन्ति न दुविद्या मन्त्र - मण्डल - शक्तयः ।। २६ ।। शाकिन्यः क्षुद्रयोगिन्यः पिशाचाः पिशिताशनाः । त्रस्यन्ति तत्क्षणादेव तस्य तेजोऽसहिष्णवः ॥। २७ ॥ दुष्टाः करटिनः सिंहाः शरभाः पन्नगा अपि । जिघांसवोऽपि तिष्ठन्ति स्तंभिता इव दूरतः ॥ २८ ॥ पिण्डस्थ ध्यान का निरन्तर अभ्यास करने वाले योगी का दुष्ट विद्याएँ - उच्चाटन, मारण, स्तंभन, विद्वेषण मंत्र, मंडल और शक्ति श्रादि भी बिगाड़ - नुकसान नहीं कर सकती हैं। शाकिनियाँ, क्षुद्र कुछ योगिनियाँ, पिशाच और मांसभक्षी दुष्ट व्यक्ति उस योगी के तेज को सहन नहीं कर सकते । वे तुरन्त ही त्रास को प्राप्त होते हैं । दुष्ट हाथी, सिंह, शरभ और सर्प श्रादि हिंसक जन्तु घात करने की इच्छा रखते हुए भी दूर ही खड़े रहते हैं । मानो वे स्तंभित हो गये हों ।
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