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योग- शास्त्र
वारुणी धारणा में अमृत-सी वर्षा बरसाने वाले और मेघ की : मालाओं से व्याप्त आकाश का चिन्तन करना चाहिए। तत्पश्चात् श्रर्ध चन्द्राकार कला-बिन्दु से युक्त वरुण-बीज 'वँ' का चिन्तन करना चाहिए । फिर वरुण-बीज 'वॅ' से उत्पन्न हुए अमृत के समान जल से श्राकाशतल भर गया है और पहले शरीर और कर्मों की जो भस्म उड़ा दी थी, वह इस जल से धुल कर साफ हो रही है, ऐसा चिन्तन करना चाहिए । इसके बाद इस धारणा को समाप्त कर देना चाहिए । यह 'वारुणीधारणा' हुई ।
५. तत्त्वभू-धाररणा
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सप्तधातु-विनाभूतं पूर्णेन्दु-विशदद्युतिम् । सर्वज्ञ-कल्पमात्मानं शुद्धबुद्धिः स्मरेत्ततः ॥ २३ ॥ ततः सिंहासनारूढं सर्वातिशयभासुरम् । विध्वस्ताशेषकर्माणं कल्याणमहिमान्वितम् ॥ २४ ॥ स्वाङ्गगर्भे निराकारं संस्मरेदिति तत्त्वभूः । साभ्यास इति पिण्डस्थे योगी शिव सुखं भजेत् ।। २५ ।। चार धारणाएँ करने के बाद शुद्ध बुद्धि वाले योगी को सात धातुनों - रस, रक्त आदि से रहित, पूर्ण चन्द्र के समान निर्मल एवं उज्ज्वल कान्ति वाले और सर्वज्ञ के सदृश शुद्ध-विशुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए ।
तदनन्तर सिंहासन पर आरूढ़ सर्व अतिशयों से सुशोभित, समस्त कर्मों का विध्वंस कर देने वाले, उत्तम महिमा से सम्पन्न, अपने शरीर में स्थित निराकार आत्मा का स्मरण - चिन्तन करना चाहिए ।
यह तत्त्वभू नामक धारणा है । इस पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाला योगी मोक्ष के अनन्त सुख को प्राप्त करता है ।
१ नराकारं ।
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