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योग-शास्त्र
दशाहं तु वहन्निन्दावेवोद्व गरुजे मरुत् ।
इतश्चेतश्च यामाधं वहन् लाभार्चनादिकृत् ॥ ७५ ॥ लगातार दस दिन तक चन्द्र-नाड़ी में ही पवन चलता रहे तो उद्वेग और रोग उत्पन्न होता है। यदि आधे-आधे प्रहर में वायु बदलता रहे अर्थात् प्राधा प्रहर सूर्य-नाड़ी में और प्राधा प्रहर चन्द्र-नाड़ी में, इस क्रम से चले तो लाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदि शुभ फल की प्राप्ति होती है।
विषवत्समयप्राप्ती स्पन्देते यस्य चक्षषी।
अहोरात्रेण जानीयात् तस्य नाशमसंशयम् ।। ७६ ।। जब दिन और रात समान-बारह-बारह घंटे के होते हैं, तब वह विषुवत् काल कहलाता है । विषुवत् काल में जिसकी आँखें फड़कती हैं, उसकी निश्चय ही मृत्यु होती है।
पञ्चातिक्रम्य संक्रान्तीमुखे वायुर्वहन दिशेत् ।
मित्रार्थहानी निस्तेजोऽनर्थान् सर्वान्मृति विना ॥ ७७ ।। एक नाड़ी में से दूसरी नाड़ी में पवन का जाना 'संक्रान्ति' कहलाता है । यदि दिन की पाँच संक्रान्तियाँ बीत जाने पर वायु मुख से बहे तो उससे मित्र हानि, धन हानि और मृत्यु को छोड़कर सभी अनर्थ होते हैं।
संक्रान्तीः समतिक्रम्य त्रयोदश समीरणः ।
प्रवहन् वामनासायां रोगोद गादि सूचयेत् ॥ ७८॥ ___ यदि तेरह संक्रान्तियाँ व्यतीत हो जाने पर वायु वाम नासिका से बहे, तो वह रोग और उद्वेग की उत्पत्ति को सूचित करता है ।
मार्गशीर्षस्य संक्रान्ति-कालादारभ्य मारुतः ।
वहन् पञ्चाहमाचष्टे वत्सरेऽष्टादशे मृतिम् ।। ७६ ॥ मार्गशीर्ष मास के प्रथम दिन से अर्थात् शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर लगातार पाँच दिन तक एक ही नाड़ी में पवन चलता रहे, तो वह उस दिन से अठारहवें वर्ष में मृत्यु का होना सूचित करता है।
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