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योग- शास्त्र
चतुः पार्श्वस्थ गुरुयं यन्त्रं वायुपुरा वृतम् । कल्पयित्वा परिन्यस्येत् पादहृच्छीर्ष सन्धिषु ।। २१० ॥ सूर्योदयक्षणे सूर्य पृष्ठे कृत्वा ततः सुधीः । स्व-परायुविनिश्चेतु निजच्छायां विलोकयेत् ॥ २११ ।। पूर्णां छायां यदीक्षेत तदा वर्षं न पंचता । कर्णाभावे तु पंचत्वं वर्षेर्द्वादशभिर्भवेत् ॥ २१२ ।। हस्तांगुली - -स्कन्ध-केश-पार्श्व - नासाक्षये क्रमात् । दशाष्ट - सप्त - पंच त्र्येक वर्षेर्मरणं दिशेत् ।। २१३ ।। षण्मास्या म्रियते नाशे शिरसश्चिबुकस्य वा । ग्रोवनाशे तु मासेनेकादशाहेन दृक्षये ॥ २१४ ।। सच्छिद्रे हृदये मृत्युदिवसैः सप्तभिर्भवेत् । यदि च्छायाद्वयं पश्येद्यमपार्श्वं तदा व्रजेत् || २१५ ।।
यंत्र पर सर्वप्रथम ॐ लिखना चाहिए और उसके साथ जिसकी श्रायु का निर्णय करना है, उसका नाम भी लिखना चाहिए। एक षट्कोण यन्त्र में ॐकार होना चाहिए । यंत्र के चारों कोणों में मानो अग्नि की सैकड़ों ज्वालाओं से व्याप्त अग्निबीज अक्षर 'र' लिखना चाहिए । अनुस्वार सहित प्रकार आदि 'अं, प्रां, इ, ई, उ, ऊं छह स्वरों से कोणों के बाह्य भागों को घेर लेना चाहिए अर्थात् छहों कोणों में छह स्वर लिखने चाहिए । फिर छहों कोणों के बाहरी भाग में छह स्वस्तिक बना लेने चाहिए । स्वस्तिकों और स्वरों के बीच में छह 'स्वा' अक्षर लिखने चाहिए । फिर चारों ओर विसर्ग सहित यकार 'यः' लिखना चाहिए और उस यकार के चारों तरफ वायु के पूर से प्रवृतसंलग्न चार रेखाएं खींचनी चाहिए ।
इस प्रकार का यन्त्र बनाकर उसके पैर, हृदय, मस्तक और सन्धियों में स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् सूर्योदय के समय सूर्य की ओर
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