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योग-शास्त्र पर-काय प्रवेश का फल
क्रमेणैवं परपुर-प्रवेशाभ्यास-शक्तितः ।।
विभ्रक्त इव निर्लेपः स्वेच्छया संचरेत्सुधीः ।।२७३।। इस क्रम से दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होने की शक्ति उत्पन्न होने के कारण बुद्धिमान योगी मुक्त पुरुष की तरह निर्लेप होकर अपनी इच्छानुसार विचरण कर सकता है।
तत्र तत्प्राणसंचारं निरुध्यान्निजवायुना । यावद्देहात्ततो देही गतचेष्टो विनिष्पतेत् ॥२॥ तेन देहे विनिमुक्ते प्रादुर्भूतेन्द्रियक्रियः । वर्तेत सर्वकार्येषु स्वदेह इव योगवित् ॥ ३ ॥ दिनाधं वा दिनं चेति क्रीडेत् परपुरे सुधीः ।
अनेन विधिना भूयः प्रविशेदात्मनः पुरम् ॥ ४॥ ब्रह्मरन्ध्र से निकल कर अपान-गुदा के मार्ग से परकीय शरीर में प्रवेश करना चाहिए । प्रवेश करने के पश्चात् नाभि-कमल का प्राश्रय लेकर, सुषुम्णा नाड़ी के द्वारा हृदय-कमल में जाना चाहिए । वहाँ जाकर अपनी वायु के द्वारा उसके प्राण संचार को रोक देना चाहिए और तब तक रोके रखना चाहिए, जब तक वह निश्चेष्ट होकर गिर न पड़े। थोड़ी देर में वह आत्मा देह से मुक्त हो जाएगा। तब अपनी ओर से इन्द्रियों की क्रिया प्रकट होने पर योगी उस शरीर से, अपने शरीर की तरह काम लेने लगेगा । आधा दिन या एक दिन तक परकीय शरीर में क्रीड़ा करके प्रबुद्ध पुरुष इसी विधि से पुनः अपने शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं।
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