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योग-शास्त्र -
प्राणायाम की अनावश्यकता
तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामः कर्थितम् ।। प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्याच्चित्त-विप्लवः ॥४॥ . . पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः ।
चित्त-संक्लेश-करणान्मुक्तेः प्रत्यूह-कारणम् ।।५।। प्राणायाम के द्वारा पीड़ित मन स्वस्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि, प्राण. का निग्रह करने से शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है और शरीर में पीड़ा होने से मन में चपलता उत्पन्न होती है।
पूरक, कुभक और रेचक करने में परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने से मन में संक्लेश उत्पन्न होता है और मन की संक्लेशमय स्थिति मोक्ष में बाधक है।
टिप्पण- प्राणायाम की प्रक्रिया से मन कुछ देर के लिए कार्य करना बन्द कर देता है, परन्तु इससे स्थिर नहीं हो पाता । अतः प्राणायाम का बन्धन शिथिल होते ही वह तेजी से दौड़ता है और साधना से बहुत दूर निकल जाता है । अतः मन को स्थिर करने के लिए उसका प्राणायाम के द्वारा निरोध न करके उसे किसी पदार्थ एवं द्रव्य के चिन्तन में लगाकर स्थिर करना चाहिए। प्रत्याहार
इन्द्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यःप्रशान्तधीः ।
धर्मध्यानकृते तस्मान्मनः कुर्वीत निश्चलम् ॥६॥ प्रशान्त बुद्धि वाला साधक इन्द्रियों के साथ मन को भी शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-इन पाँचों विषयों से हटाकर, उसे धर्मध्यान के चिन्तन में लगाने का प्रयत्न करे।
टिप्पण-अभिप्राय यह है कि जब तक इन्द्रियाँ और मन विषयों से विरत नहीं हो जाते, तब तक मन में शान्ति का प्रादुर्भाव नहीं होता।
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