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योग-शास्त्र
परच्छायां परकृते स्वच्छायां स्वकृते पुनः ।
सम्यक् तत्कृतपूजः सन्नुपयुक्तो विलोकयेत् ॥ २१६ ।। 'ॐ' जुसः ॐ मृत्युञ्जयाय ॐ वज्रपाणिने शूलपाणिने हर-हर दहदह स्वरूपं दर्शय-दर्शय हुँ फट-फट ।' इस विद्या से अपने नेत्रों को और अपनी छाया को १०८ बार मन्त्रित करके, सूर्योदय के समय, सूर्य की तरफ पीठ करके, सम्यक् प्रकार से विद्या की पूजा करके, चित्त स्थिर करके, दूसरे के लिए दूसरे की छाया और अपने लिए अपनी छाया देखनी चाहिए।
सम्पूर्ण यदि पश्येत्तामावर्ष न मृतिस्दा । क्रमजंघा-जान्वभावे त्रि-द्वयेकाब्दैम॒तिः पुनः ॥ २२० । ऊरोरभावे दशभिर्मासैनश्येत्कटेः पुनः ।
अष्टाभिर्नवभिर्वापि तुन्दाभावे तु पंचषैः ।। २२१ ॥ यदि छाया सम्पूर्ण दिखाई दे तो एक वर्ष पर्यन्त मृत्यु नहीं होगी। और पैर, जंघा और घुटना दिखाई न देने पर अनुक्रम से तीन, दो और एक वर्ष में मृत्यु होती है। ऊरु-पिंडली दिखाई न देने पर दस महीने में, कमर दिखाई न देने पर आठ-नौ महीने में और पेट दिखाई न देने पर पाँच मास में मृत्यु होती है ।
ग्रीवाभावे चतुस्त्रि-द्वयेकमासैम्रियते पुनः । कक्षाभावे तु पक्षेण दशाहेन भुजक्षये ॥ २२२ ।। दिनैः स्कंधक्षयेऽष्टाभिश्चतुर्याम्या तु हृत्क्षये।
शीर्षाभावे तु यामाभ्यां सर्वाभावे तु तत्क्षणात् ।। २२३ ।। यदि गर्दन न दिखाई दे तो चार, तीन, दो या एक मास में मृत्यु होती है । यदि बगल दिखाई न दे, तो पन्द्रह दिन में और भुजा दिखाई न दे, तो दस दिन में मृत्यु होती है ।
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