________________
पंचम प्रकाश
उपसंहार
अध्यात्म वायुमाश्रित्य प्रत्येकं सूर्य-सोमयोः ।
एवमभ्यास-योगेन जानीयात् कालनिर्णयम् ॥ ११७ ।। इस प्रकार शरीर के भीतर रहे हुए वायु सम्बन्धी सूर्य एवं चन्द्रनाड़ी का अभ्यास करके काल का निर्णय जानना चाहिए । मृत्यु के बाह्य लक्षण
अध्यात्मिकविपर्यासः संभवेद् व्याधितोऽपि हि ।
तन्निश्चयाय बध्नामि बाह्यं कालस्य लक्षणम् ॥११८ ।। शरीर के अन्तर्गत वाय के आधार पर उक्त काल-निर्णय बताया गया है, परन्तु वायु का विपर्यास-उलट-फेर व्याधि के कारण भी हो सकता है। व्याधिकृत विपर्यास की स्थिति में वायु के द्वारा काल का निर्णय सही नहीं होगा। अतः काल का स्पष्ट और सही निर्णय करने के लिए काल के बाह्य लक्षणों का वर्णन किया जाता है।
नेत्र-श्रोत्र-शिरोभेदात् स च त्रिविधलक्षणः।
निरीक्ष्यः सूर्यमाश्रित्य यथेष्टमपरः पुनः ॥ ११६ ॥ सूर्य की अपेक्षा से काल का बाह्य लक्षण–नेत्र, श्रोत्र और शिर के भेद से तीन प्रकार का माना गया है । इसके अतिरिक्त अन्य बाह्य लक्षण स्वेच्छा से ही देखे जाते हैं। उनके लिए सूर्य का अवलंबन लेने की भी मावश्यकता नहीं है।
नेत्र से कालज्ञान - वामे तत्रेक्षणे पद्म षोडशच्छदमैन्दवम् ।
जानीयाद् भानवीयं तु दक्षिणे द्वादशच्छदम् ॥ १२० ।। . बाएँ नेत्र में सोलह पांखुड़ी वाला चन्द्र सम्बन्धी कमल है और
दाहिने नेत्र में बारह पांखुड़ी वाला सूर्य सम्बन्धी कमल है, सर्वप्रथम इन दोनों कमलों का परिज्ञान कर लेना चाहिए ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org