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योग-शास्त्र
मनोहरतरश्चासीत् किन्त्वयं लघु भक्ष्यते । अर्थान्तरापदेश्यः स्यादेवमादिरुप श्रुतिः ।। १६३ ।। एषा स्त्री पुरुषो वाऽसौ स्थानादस्मान्न यास्यति। दास्यामोन वयं गन्तुगन्तुकामो न चाप्ययम् ।। १६४ ।। विद्यते गन्तु-कामोऽयमहं च प्रेषणोत्सुकः। । तेन यास्यत्यसो शीघ्र स्यात्सरूपेत्युपश्रुतिः ।। १६५ ।। कर्णोद्घाटन - संजातोपश्रुत्यन्तरमात्मनः ।
कुशलाः कालमासन्नमनासन्नं च जानते ।। १६६ ॥ विद्वान् पुरुष को उपश्रुति से काल का निर्णय करना चाहिए । उसके निर्णय की विधि इस प्रकार है
जब भद्रा आदि अपयोग न हो- ऐसे प्रशस्त दिन में सोने के समय अर्थात् एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो जाने पर वह प्रबुद्ध-पुरुष पूर्व, उत्तर या पश्चिम दिशा में जाए । वह जाते समय पाँच नमस्कार मंत्र का जाप करके अपने दोनों कानों को पवित्र कर ले । फिर कानों को इस प्रकार बन्द कर ले कि उसे किसी व्यक्ति का शब्द सुनाई न पड़े और शिल्पियोंकारीगरों के घर की ओर अथवा बाजार की ओर पूर्वोक्त दिशाओं में गमन करे । वह वहाँ जाकर भूमि को चन्दन से चचित करके गंध-अक्षत डाल कर, सावधान होकर, कान खोल कर लोगों के शब्दों को सुने । वे शब्द दो प्रकार के होंगे-१. अर्थान्तरापदेश्य और २. स्वरूप-उपश्रुति । अर्थान्तरापदेश्य शब्द या उपश्रुति वह है जो प्रत्यक्ष रूप से अभीष्ट अर्थ को प्रकट न करे, बल्कि सोच-विचार करने पर अभीष्ट अर्थ को प्रकट करे ।
और स्वरूप उपश्रुति वह कहलाती है, जो जिस रूप में सुनाई दे उसी रूप में अभीष्ट अर्थ को प्रकट करे :
१. अर्थान्तरापदेश्य उपश्रुति-इस प्रकार समझना चाहिए'इस घर का स्तंभ पाँच-छह दिनों में, पाँच-छह पखवाड़ों में, पांच-छह महीनों में या पाँच-छह वर्षों में टूट जायगा, अथवा यह नहीं टूटेगा।'
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