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योग-शास्त्र
पादांगुष्ठे मनः पूर्वं रुध्ध्वा पादतले ततः । पाष्णौं गुल्फे च जंघायां जानुन्यूरौ गुदे ततः ।। २८ ।। लिंगे नाभौ च तुन्दे च हृत्कण्ठरसनेऽपि च । तालुनासाग्रनेत्रे च भ्र वोर्भाले शिरस्यथ ॥ २६ ॥ एवं रश्मि-क्रमेणैव धारयन्मरुता सह । स्थानात्स्थानान्तरं नीत्वा यावद् ब्रह्मपुरं नयेत् ॥३०॥ ततः क्रमेण तेनैव पादांगुष्ठान्तमानयेत् ।
नाभिपद्मान्तरं नीत्वा ततो वायु विरेचयेत् ।। ३१ ॥ . पूर्वोक्त आसनों में से किसी एक प्रासन से स्थित होकर, धीरे-धीरे पवन का रेचन करके-बाहर निकाल कर उसे नासिका के बाएँ छिद्र से अन्दर खींचे और पैर के अंगूठे तक ले जाए और मन का भी पर के अंगुष्ठ में निरोध करे। फिर अनुक्रम से वायु के साथ मन को पैर के तल भाग में, एड़ी में, गुल्फ में, जांघ में, जानु में, ऊरु में, गुदा में, लिंग में, नाभि में, पेट में, हृदय में, कंठ में, जीभ में, तालु में, नासिका के अग्रभाग में, नेत्र में, भ्रकुटि में, कपाल में और मस्तक में, धारण करे और अन्त में उन्हें ब्रह्म-रन्ध्र पर्यन्त ले जाना चाहिए। तदनन्तर पूर्वोक्त क्रम से पीछे लौटाते हुए अन्त में मन सहित पवन को पैर के अंगूठे में ले पाना चाहिए और उन्हें वहाँ से नाभि-कमल में ले जाकर वायु का रेचक करना चाहिए । धारण का फल
पादांगुष्ठादौ जंघायां जानूरुगुदमेदने । धारितः क्रमशो वायुः शीघ्रगत्यै बलाय च ॥ ३२ ॥ नाभौ ज्वरादिघाताय जठरे काय-शुद्धये । . ज्ञानाय हृदये कूर्मनाड्यां रोग-जराच्छिदे ॥ ३३ ॥ कण्ठे क्षुत्तर्षनाशाय जिह्वाग्रे रससंविदे । गन्धज्ञानाय नासाग्रे रूपज्ञानाय चक्षुषोः ॥ ३४ ॥
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