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पंचम प्रकाश
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तेज हो जाती है, मल-मूत्र कम हो जाता है और व्याधियों का नाश हो जाता है।
उदान-वायु पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह चाहे तो मृत्यु के समय अचिमार्ग दशम द्वार से प्राण त्याग कर सकता है, पानी और कीचड़ से शरीर को बाधा नहीं होती
और कण्टक आदि का कष्ट भी नहीं होता। व्यान-वायु के विजय से शरीर पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता, शरीर का तेज बढ़ता है और नीरोगता प्राप्त होती है।
यत्र-यत्र भवेत्स्थाने जन्तो रोगः प्रपीडकः ।
तच्छान्त्यै धारयेत्तत्र प्राणादि मरुतः सदा ॥ २५ ॥ प्राणी को पीड़ा उत्पन्न करने वाला रोग जिस-जिस स्थान पर उत्पन्न हुआ हो, उसकी शान्ति के लिए उसी-उसी स्थान पर प्राणादि वायु को रोक रखना चाहिए।
टिप्पण-शरीर के प्रत्येक भाग में, पाँच प्रकार की वायु में से कोई न कोई वायु अवश्य रहती है। जब शरीर के किसी भाग में रोग की उत्पत्ति हो, तो पहले पूरक-प्राणायाम करके उस भाग में कुम्भक-प्राणायाम करना चाहिए । ऐसा करने से रोग का नाश हो जाता है ।
एवं प्राणादि विजये कृताभ्यासः प्रतिक्षणम् ।
धारणादिकमभ्यस्येन्मनःस्थैर्यकृते सदा ।। २६ ।। . इस प्रकार प्राणादि वायु को जीतने का अभ्यास करके, मन की स्थिरता के लिए निरन्तर धारण, ध्यान एवं समाधि का अभ्यास करना चाहिए। धारण की विधि
उक्तासनसमासीनो रेचयित्वानिलं शनै । आपादांगुष्ठपर्यन्तं वाममार्गेण पूरयेत् ।। २७ ।।
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