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योग - शास्त्र
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नाभि में से पवन का निकलना 'चार' कहलाता है, हृदय के मध्य . में से जाना 'गति' है और ब्रह्मरन्ध्र में रहना वायु का 'स्थान' समझना चाहिए ।
चार आदि ज्ञान का फल
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तच्चार - गमन - स्थान - ज्ञानादभ्यासयोगतः । जानीयात्कालमायुश्च शुभाशुभ - फलोदयम् ॥ ३८ ॥
वायु के चार, गमन और स्थान को अभ्यास करके जान लेने से काल -- मरण, श्रायु — जीवन और शुभाशुभ फल के उदय को जाना जा सकता है ।
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ततः शनैः समाकृष्य पवनेन समं मनः । योगी हृदय- पद्मान्तविनिवेश्य नियंत्रयेत् ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् योगी पवन के साथ मन को धीरे-धीरे खींच कर उसे हृदय-कमल के अन्दर प्रविष्ट करके उसका निरोध करते हैं ।
ततोऽविद्या विलीयन्ते विषयेच्छा विनश्यति । विकल्पा विनिवर्त्तन्ते ज्ञानमन्तविजृम्भते ॥ ४० ॥
हृदय - कमल में मन को रोकने से अविद्या - कुवासना या मिथ्यात्व विलीन हो जाता है, इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा नष्ट हो जाती है, विकल्पों का विनाश हो जाता है और अन्तर में ज्ञान प्रकट हो जाता है ।
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क्व मण्डले गतिर्वायोः संक्रमः क्व क्व विश्रमः
का च नाडीति जानीयात् तत्र चित्ते स्थिरीकृते ॥ ४१ ॥
हृदय - कमल में मन को स्थिर करने से यह जाना जा सकता है कि किस मंडल में वायु की गति है, उसका किस तत्त्व में प्रवेश होता है, वह कहाँ जाकर विश्राम पाती है और इस समय कौन-सी नाड़ी चल रही है
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