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चतुर्थ प्रकाश
१३५ संवर की प्राप्ति के लिए उद्योग करने वाले पुरुष को चाहिए कि वह क्षमा से क्रोध को, कोमलता-नम्रता से मान को, सरलता से माया को और निस्पृहता से लोभ को रोके ।
बुद्धिमान् पुरुष अखण्ड संयम साधना के द्वारा इन्द्रियों की स्वच्छंद प्रवृत्ति से बलवान् बनने वाले, विष के समान विषयों को तथा विषयों की कामना को रोक दे। ____ इसी प्रकार तीनों गुप्तियों द्वारा तीनों योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को और सावद्य-योग पाप-पूर्ण व्यापारों के त्याग से अविरति को दूर करे।
सम्यग्दर्शन के द्वारा मिथ्यात्व को तथा शुभ भावना में चित्त की स्थिरता करके आर्त-रौद्र ध्यान को जीतना चाहिए। किस पाश्रव का किस उपाय से निरोध किया जा सकता है, इस प्रकार का बार-बार चिन्तन करना 'संवर-भावना' है । ६. निर्जरा-भावना
संसार-बोज-भूतानां कर्मणां जरणादिह ।
निर्जरा सा स्मृता द्वधा सकामा कामवजिता ॥ ८६ ।। भव-भ्रमण के बीजभूत कर्मों का आत्म-प्रदेशों से खिर जाना, झड़ जाना या पृथक् हो जाना 'निर्जरा' है । वह दो प्रकार की है-सकाम-निर्जरा और अकाम-निर्जरा। - ज्ञेया सकामा यमिनामकामा त्वन्यदेहिनाम् ।
कर्मणां फलवत्पाको यदुपायात्स्वतोऽपि च ॥ ८७ ॥ केवल कर्मों की निर्जरा के अभिप्राय से तपश्चरण आदि क्रिया की जाती है, तो उस क्रिया से होने वाली निर्जरा 'सकाम-निर्जरा' कहलाती है । यह निर्जरा सम्यग्-दृष्टि जीवों को ही होती है। सम्यक्त्वी से भिन्न एकेन्द्रिय प्रादि अन्य प्राणियों के कर्मों की निर्जरा करने की अभिलाषा
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