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योग-शास्त्र
पूर्वोक्त प्रास्रवों का निरोध-प्रतिपक्षी भाव 'संवर' कहा गया है । संवर दो प्रकार का है-द्रव्य-संवर और भाव-संवर।
टिप्पण-जिन कषाय आदि निमित्तों से कर्मों का आश्रव होता है, उनका रुक जाना संवर है । पूर्ण संवर की प्राप्ति अयोगी दशा में होती है, क्योंकि उस दशा में प्राश्रव का कोई भी कारण विद्यमान नहीं रहता। किन्तु, उससे पहले ज्यों-ज्यों आश्रव के कारणों को जीव कम करता जाता' है, त्यों-त्यों संवर की मात्रा बढ़ती जाती है। ऐसा संवर देश-संवर कहलाता है । द्रव्यसंवर और भावसंवर-दोनों के ही यह दो-दो भेद हैं ।
यः कर्म-पुद्गलादानच्छेदः स द्रव्य-संवरः ।
भव-हेतु-क्रिया-त्यागः स पुनर्भाव-संवरः ।। ८० ॥ कर्म-पुद्गलों के ग्रहण का छेदन हो जाना, अर्थात् आगमन रुक जाना 'द्रव्य-संवर' है और भव-भ्रमण की कारणभूत क्रियाओं का त्याग कर देना 'भाव-संवर' है।
येन येन ह्य पायेन, सध्यते यो य आश्रवः । तस्य तस्य निरोधाय स स योज्यो मनीषिभिः ॥ ८१ ॥ क्षमया मृदुभावेन ऋजुत्वेनाऽप्यनीहया।। क्रोधं मान तथा मायां लोभं रुध्याद्यथाक्रमम् ।। ८२ । असंयमकृतोत्सेकान् विषयान् विषसन्निभान् । निरा - कुर्यादखण्डेन संयमेन महामतिः ।। ८३ ।। तिसृभिगुप्तिभिर्योगान् प्रमादं चाप्रमादतः । सावद्ययोगहानेनाविरति चापि साधयेत् ।। ८४ ।। सदर्शनेन मिथ्यात्वं शुभस्थैर्येण चेतसः ।
विजयेतात-रौद्रे च संवरार्थं कृतोद्यमः ।। ८५। ओ-जो पाश्रव जिस-जिस उपाय से रोका जा सके, उसे रोकने के लिए विवेकवान् पुरुष उस-उस उपाय को काम में लाए ।
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