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योग-शास्त्र के बिना ही भूख-प्यास आदि का कष्ट सहने से जो निर्जरा होती है, वह 'अकाम-निर्जरा' है। जैसे फल दो प्रकार से पकता है-फल को घास
आदि में दबा देने से और स्वभाव से अर्थात् डाली पर लगे-लगे प्राकृतिक प्रक्रिया से, उसी प्रकार कर्मों का परिपाक भी दो प्रकार से होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म-क्षय करने की इच्छा से प्रेरित होकर व्रती पुरुष तपस्या आदि का कष्ट सहन करता है, उससे कर्म नीरस होकर आत्म-प्रदेशों से पृथक् हो जाते हैं । यह 'सकाम-निर्जरा' है । दूसरे प्राणी संसार में जो नाना प्रकार के कष्ट सहन करते हैं, उनसे कर्म का विपाक भोग लिया जाता है और विपाक भोग लेने के पश्चात् वह कर्म
आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाता है । वह 'अकाम-निर्जरा' कहलाती है। प्रत्येक संसारी जीव प्रतिक्षण अकाम-निर्जरा करता रहता है, परन्तु सकाम-निर्जरा तो ज्ञान युक्त तपस्या करने पर ही होती है।
सदोषमपि दीप्तेन सुवर्ण वह्निना यथा ।
तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ।। ८८ ।। जैसे सदोष-रज एवं मैल युक्त स्वर्ण प्रदीप्त अग्नि में पड़कर पूरी तरह शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तप रूपी आग से तपा हुआ जीव भी विशुद्ध बन जाता है।
अनशनमौनोदर्य वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रस-त्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ।। ८६ ।। प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च ।
व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ ६० ॥ तप दो प्रकार का है-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। बाह्य तप छह प्रकार का होता है :.. १.. अनशन-परिमित समय तक अथवा विशिष्ट कारण उपस्थित
होने पर जीवन-पर्यन्त आहार का त्याग करना।
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