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चतुर्थ प्रकाश
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ध्यान का समय
समत्वमवलम्ब्याथ ध्यानं योगी समाश्रयेत् ।
विना समत्वमारब्धे ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते ॥ ११२ ।। समत्व की प्राप्ति के पश्चात् योगी जनों को ध्यान करना चाहिए । समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान करना-प्रात्म-विडम्बना मात्र है । क्योंकि समत्व के बिना ध्यान में प्रवेश होना संभव नहीं है ।
टिप्पण-चतुर्थ प्रकाश के प्रारम्भ में आत्म-ज्ञान की मुख्यता का प्रतिपादन करते हुए बताया गया था कि कषाय-विजय के बिना आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता । कषाय-विजय के लिए इन्द्रिय-विजय अपेक्षित है, इन्द्रिय-विजय के लिए मनःशुद्धि आवश्यक है, मनःशुद्धि के लिए राग-द्वेष को जीतना आवश्यक है, राग-द्वेष को जीतने के लिए समभाव का अभ्यास चाहिए और उसके लिए भावना-जनित निर्ममत्व भाव अनिवार्य है। इस प्रकार साधना की कार्य-कारण-भाव प्रक्रिया पूर्ण होने पर ध्यान की योग्यता प्रकट होती है । ध्यान की पूर्ववर्ती इस आवश्यक प्रक्रिया को पूर्ण किए बिना ही ध्यान करने का साहस करना विडम्बना मात्र है। यही आशय यहाँ प्रकट किया गया है । ध्यान का महत्त्व
मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्म-ज्ञानतो भवेत् ।
ध्यान-साध्यं मतं तच्च तद्ध्यानं हितमात्मनः ।। ११३ ।।। कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्म-ज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से प्रात्म-ज्ञान प्राप्त होता है । अतः ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना गया है।
न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद् द्वयमन्योन्य-कारणम् ।। ११४ ॥
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