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योग-शास्त्र
. बाह्य और प्राभ्यन्तर तपस्या रूपी अग्नि के प्रज्वलित होने पर संयमी पुरुष कठिनाई से क्षीण किए जाने योग्य कर्मों का भी तत्काल क्षय कर देता है। १०. धर्म-सुप्राख्यतत्व-भावना .
स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं भवद्भिजिनोत्तमैः। ... यं समालम्बमानो हि न मज्जेद् भव-सागरे ।। ६२॥ संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिञ्चनता तपः।
क्षान्तिर्दिवमृजुता मुक्तिश्च दशधा स तु ।। ६३ ॥ . भगवान् जिनेन्द्र देव ने विधि-निषेध रूप यह धर्म सम्यक् प्रकार से प्रतिपादन किया है, जिसका अवलम्बन करने वाला प्राणी संसार-सागर में नहीं डूबता है।
वह धर्म या संयम-जीवदया, सत्य, शौच-अदत्तादान का त्याग, ब्रह्मचर्य, अकिंचनता-निर्ममत्व, तप, क्षमा, मृदुता, सरलता और निर्लोभता, इस प्रकार दस तरह का है।
धर्मप्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतीप्सितम् ।
गोचरेऽपि न ते यत्स्युरधर्माधिष्ठितात्मनाम् ।। ६४ ॥ धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, आदि मनचाहा फल प्रदान करते हैं, किन्तु अधर्मी जनों के लिए फल देना तो दूर रहा, वे दृष्टिगोचर तक नहीं होते।
अपारे व्यसनाम्भोधौ पतन्तं पाति देहिनम् ।
सदा सविधव]क-बन्धुर्धर्मोऽति-वत्सलः ।। ६५ ।। इस लोक और परलोक में सदैव साथ रहने वाला और बन्धु के समान अत्यन्त वत्सल धर्म अपार दुःखसागर में गिरते हुए मनुष्य को बचाता है ।
आप्लावयति नाम्भोधिराश्वासयति चाम्बुदः । यन्महीं स प्रभावोऽयं ध्रुवं धर्मस्य केवलः ।। ६६ ॥
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