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योग- शास्त्र
नवस्रोतःस्रवद्विस्र - रसनिः स्यन्द - पिच्छिले । देहेऽपि शौचसंकल्पो महन्मोहविजृम्भितम् ॥ ७३ ॥
शरीर रस, रक्त, मांस, मेद - चर्बी, हाड़, मज्जा, वीर्य, प्रांत और विष्ठा आदि अशुचि पदार्थों का भाजन है । अत: यह शरीर किस प्रकार से पवित्र हो सकता है ?
इस देह के नौ द्वारों से सदैव दुर्गन्धित रस भरता रहता है और उस रस से देह लिप्त बना रहता है । ऐसे पावन देह में पवित्रता की कल्पना करना महान् मोह की बिडम्बना मात्र है ।
७.
श्रास्रव-भावना
मनोवाक्काय कर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्त्तिताः । ७४ ॥
मन, वचन और काय का व्यापार 'योग' कहलाता है । योग के द्वारा जीवों में शुभ और अशुभ कर्मों का श्रागमन होता है, अतः योग को ही स्रव कहा गया हैं ।
टिप्पण - आत्मा के द्वारा गृहीत मनोवर्गणा के पुद्गलों के निमित्त से आत्मा अच्छा-बुरा मनन करता है । मनन करते समय आत्मा में जो वीर्य - परिणति होती है, उसे 'मनोयोग' कहा है। ग्रहण किए हुए भाषा पुद्गलों के निमित्त से श्रात्मा की भाषण- शक्ति 'वचन-योग' है और शरीर के निमित्त से होने वाला जीव का वीर्य - परिणमन 'काय योग' है । यह तीनों योग शुभ और अशुभ कर्मों के जनक हैं, इस कारण इन्हें 'आस्रव' कहते हैं ।
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मैत्र्यादिवासितं चेतः कर्म सूते शुभात्मकम् ।
कषाय - विषयाक्रान्तं वितनोत्यशुभं पुनः ॥ ७५ ॥ शुभार्जनाय निर्मिथ्यं श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । पुनर्ज्ञेयमशुभार्जन हेतवे ।। ७६ ।।
विपरीतं
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