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चतुर्थ प्रकाश
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शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम् ।
सततारम्भिणा जन्तु-घातकेनाशुभं पुनः ।। ७७ ।। एक ही प्रकार का मनोयोग कभी शुभ और कभी अशुभ-इस प्रकार विरोधी कर्मों का जनक किस प्रकार हो सकता है ? और जो प्रश्न मनोयोग के सम्बन्ध में है. वही वचन-योग और काय-योग के विषय में भी हो सकते हैं। इनके उत्तर यहाँ दिये गये हैं।
मंत्री, प्रमोद, करुणा और समता आदि शुभ भावों से भावित मनोयोग शुभ-कर्मों का जनक होता है और जब वह कषाय एवं इन्द्रियविषयों से आक्रान्त होता है, तब वह अशुभ-कर्मों का जनक होता है।
शास्त्र के अनुकूल सत्य वचन शुभ-कर्म का जनक होता है और इससे विपरीत वचन अशुभ-कर्म को उत्पन्न करता है।
सम्यक् प्रकार से गोपन किया हुआ अर्थात् कुचेष्टाओं से रहित या सब प्रकार की चेष्टानों से रहित शरीर शुभ कर्मों का उपार्जन करता है और सदैव प्रारम्भ में प्रवृत्त तथा जीव-हिंसा करने शरीर से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है।
कषाया विषया योगाः प्रमादा विरती तथा । .. __ मिथ्यात्वमात-रौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥ ७८ ।।
कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति-अरति आदि, इन्द्रियों के विषयों की कामना, योग, प्रमाद अर्थात् अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म के प्रति अनादर और योगों की दूषित प्रवृत्ति, . अविरति-हिंसा आदि पापों, मिथ्यात्व, आर्तध्यान और रौद्रध्यान का सेवन करना, यह सब अशुभ कर्मों के प्राश्रव-कर्म आने के कारण हैं। ८. संवर-भावना
सर्वेषामाश्रवाणां तु निरोधः संवरः स्मृतः । स पुनर्भिद्यते द्वधा द्रव्य-भाव-विभेदतः ॥ ७६ ।।
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