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चतुर्थ प्रकाश
१२९ इस प्रकार स्थिर चित्त से, क्षण-क्षण में, तृष्णा रूपी काले भुजंगम का नाश करने वाले निर्ममत्व भाव को जगाने के लिए जगत् के अनित्य स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। २. अशरण-भावना
इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् ।
अहो तदन्तकातङ्क कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥ ६१ ॥ अहा, जब देवराज इन्द्र तथा उपेन्द्र-वासुदेव, चक्रवर्ती आदि भी मृत्यु के अधीन होते हैं, तो मौत का भय उपस्थित होने पर अन्य जीवों को कौन शरण प्रदान कर सकेगा? मृत्यु से कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता।
पितुर्मातुः स्वसुर्धातुस्तनयानाञ्च पश्यताम् । __ अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यम-सद्मनि ।। ६२ ।। माता, पिता, भगिनी, भाई और पुत्र आदि स्वजन देखते रहते हैं और कर्म जीव को यमराज के घर-विभिन्न गतियों में ले जाते हैं । उस समय रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं होता।
शोचन्ति स्वजनानन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः ।
नेष्यमाणं तु शोचन्ति नात्मानं मूढ-बुद्धयः ।। ६३ ॥ मूढ़-बुद्धि पुरुष अपने कर्मों के कारण मृत्यु को प्राप्त होने वाले स्वजनों के लिए तो शोक करते हैं, परन्तु 'मैं स्वयं एक दिन मृत्यु की शरण में चला जाऊंगा'- यह सोचकर अपने लिए शोक नहीं करते।
संसारे दुःखदावाग्नि-ज्वलज्ज्वाला-करालिते ।
वने मृगार्भकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ।। ६४ ॥ वन में सिंह का हमला होने पर जैसे हिरन के बच्चे को कोई बचा नहीं सकता, उसी प्रकार दुःखों के दावानल की ज्वाजल्यमान भीषण ज्वालाओं से प्रज्वलित इस संसार में प्राणी को कोई बचाने वाला नहीं है।
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