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योग-शास्त्र
और सिर्फ राग की विरोधी भावना निर्ममत्व' है । इन दोनों में कार्यकारण भाव है। साधक जब राग-द्वेष को नष्ट करने के लिए समभाव जगाना चाहता है, तो उसे पहले अधिक शक्तिशाली राग का विनाश करने के लिए निर्ममत्व का अवलम्बन लेना चाहिए। निर्ममत्व भाव को जागृत करने लिए बारह भावनाएँ उपयोगी हैं, जिनका स्वरूप आगे बतलाया जा रहा है। १. अनित्य-भावना
यत्प्रातस्तन्न मध्याह्न, यन्मध्याहन तनिशि। निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् ही पदार्थानामनित्यता ॥ ५७ ।। शरीरं देहिनां सर्व-पुरुषार्थ निबन्धनम् । प्रचण्ड-पवनोद्भूत घनाघन-विनश्वरम् ।। ५८ ॥ कल्लोल-चपला लक्ष्मीः संगमाःस्वप्नसन्निभाः । वात्या-व्यतिकरोत्क्षिप्त-तूल-तुल्यं च यौवनम् ॥ ५६ ।। इत्यनित्यं जगवृत्तं स्थिर-चित्तः प्रतिक्षणम् ।
तृष्णा-कृष्णाहि-मन्त्राय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥ ६० ।। इस संसार में समस्त पदार्थ अनित्य हैं। प्रातःकाल जिसे देखते हैं, वह मध्याह्न में दिखाई नहीं देता और मध्याह्न में जो दृष्टिगोचर होता है, वह रात्रि में नजर नहीं आता।
शरीर ही जीवधारियों के समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि का आधार है । किन्तु, वह भी प्रचण्ड पवन से छिन्न-भिन्न किए गए बादलों के समान विनश्वर है।
लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान चपल है, प्रिय जनों का संयोग स्वप्न के समान क्षणिक है और यौवन वायु के समूह द्वारा उड़ाई हुई आक की रुई के समान अस्थिर है।
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