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चतुर्थ प्रकाश
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क्षमा आदि गुण भी विद्यमान ही हैं, क्योंकि मन-शुद्धि वाले को उन गुणों का फल सहज ही प्राप्त हो जाता है । इसके विपरीत, यदि मन की शुद्धि नहीं हुई है, तो क्षमा आदि गुणों का होना भी न होने के समान है । श्रतः विवेकी जनों को मन की शुद्धि करनी चाहिए ।
जो मन को शुद्ध किए बिना मुक्ति के लिए तपस्या करते हैं, वे नौका को त्याग कर भुजानों से महासागर को पार करना चाहते हैं । जैसे अंधे के लिए दर्पण व्यर्थ है, उसी प्रकार मन की थोड़ी भी शुद्धि किए बिना तपस्वी का ध्यान करना निरर्थक है ।
अतः सिद्धि प्राप्त करने के अभिलाषी को मन की शुद्धि अवश्य करनी चाहिए । मन की शुद्धि के प्रभाव में तपश्चरण, श्रुताभ्यास एवं महाव्रतों का पालन करके काया को क्लेश पहुँचाने से लाभ ही क्या है ?
मन की शुद्धि करके ही राग-द्वेष पर विजय प्राप्त की जाती है, जिसके प्रभाव से आत्मा मलीनता को त्याग कर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है।
राग-द्वेष की दुर्जयता
आत्मायत्तमपि स्वान्तं कुर्वतामत्र योगिनाम् ।
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रागादिभिः समाकम्य, परायत्तं विधीयते ॥ ४६ ॥ रक्ष्यमाणमपि स्वान्तं समादाय मनाग् मिषम् । पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः ॥ ४७ ॥ रागादि - तिमिर - ध्वस्त - ज्ञानेन मनसा जनः । अन्धेनान्धं इवाकृष्टः पात्यते नरकावटे ॥ ४८ ॥ प्रस्ततन्द्रैरतः पुंभिर्निर्वाणपदकांक्षिभिः । विधातव्यः समत्वेन, राग-द्व ेष द्विषज्जयः ॥ ४६ ॥ योगी पुरुष किसी तरह अपने मन को अधीन करते भी हैं, तो रागद्वेष श्रोर मोह प्रादि विकार आक्रमण करके उसे पराधीन बना देते हैं ।
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