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योग-शास्त्र
दूसरे को जलाए अथवा न भी जलाए, पर अपने आपको तो जलाती ही है। उसी प्रकार क्रोध करने वाला पहले स्वयं जलता है, फिर दूसरे को जला सकता है या नहीं भी जला सकता।
क्रोध रूपी अग्नि को तत्काल शान्त करने के लिए उत्तम पुरुषों को एक मात्र क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिए-क्षमा ही क्रोधाग्नि को शान्त कर सकती है । क्षमा संयम रूपी उद्यान को हरा-भरा बनाने के लिए क्यारी के समान है। २. मान-कषाय
विनय-श्रुत-शीलानां त्रि-वर्गस्य च घातकः । ।
विवेकलोचनं लुम्पन् मानोऽन्धकरणो नृणाम् ॥ १२ ॥ . मान विनय का, श्रुत का और शील-सदाचार का घातक है, त्रि-वर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ एवं काम का विनाशक है । वह मनुष्य के विवेक रूपी नेत्र को नष्ट करके उसे अन्धा कर ता है। .
जाति-लाभ-कूलैश्वर्य-बल-रूप - तपः श्रुतैः। कुर्वन् मदं पुनस्तानि होनानि लभते जनः ॥ १३ ॥ उत्सर्पयन् दोष-शाखा, गुणमूलान्यधो नयन् ।
उन्मूलनीयो मान-द्रुस्तन्मार्दव-सरित्प्लवैः ।। १४ ।। मान के प्रधान स्थान आठ हैं-जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप और श्रुत । इन आठ में से मनुष्य जिसका अभिमान करता है, भवान्तर में उसी की हीनता प्राप्त करता है । अर्थात् जाति का अभिमान . करने वाले को नीच जाति की, लाभ का मद करने वाले को अलाभ की, कुल आदि का मद करने वाले को नीच कुल आदि की प्राप्ति होती है। प्रतः दोष रूपी शाखाओं का विस्तार करने वाले और गुण रूपी मूल को नीचे ले जाने वाले मान रूपी वृक्ष को मार्दव-मृदुता-नम्रता रूपी नदी के वेग के द्वारा जड़ से उखाड़ फेंकना ही उचित है।
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