________________
१२०
योग-शास्त्र
लोभ - सागरमुलमतिवेलं महामतिः।
सन्तोष-सेतु-बन्धेन, प्रसरन्तं निवारयेत् ॥ २२ ॥ लोभ समस्त दोषों की उत्पत्ति की खान है.और समस्त गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है। वह सारी मुसीबतों का मूल कारण है और धर्म, काम आदि सब पुरुषार्थों का बाधक है। ___ मनुष्य जब निर्धन होता है, तब वह सौ रुपए की इच्छा करता है । सौ रुपए वाला हजार रुपए की कामना करता है। हजार का स्वामी लखपति बनना चाहता है और लखपति करोड़पति बनने की अभिलाषा रखता है । करोड़पति चाहता है कि मैं राजा बन जाऊँ और राजा चक्रवर्ती होने के स्वप्न देखता है । चक्रवर्ती देवत्व-दैवी वैभव की अभिलाषा करता है, तो देव इन्द्र की विभूति की लालसा करता है। किन्तु, इन्द्र का पद प्राप्त कर लेने पर भी क्या लोभ का अन्त प्रा जाता है ? नहीं। इस प्रकार लोभ प्रारम्भ में छोटा होकर शैतान की भाँति बढ़ता ही चला जाता है । अतः महासागर के ज्वार की तरह बार-बार फैलने वाले लोभ के विस्तार को रोकने के लिए बुद्धिमान् पुरुष सन्तोष का बाँध (Dam) बान्ध ले । कषाय-विजय
क्षान्त्या क्रोधो मृदुत्वेन मानो मायाजवेन च ।
लोभश्चानोहया जेयाः कषाया इति संग्रहः ।। २३ ।। क्रोध को क्षमा- से, मान को मार्दव से, माया को प्रार्जव-सरलता से और लोभ को निस्पृहता से जीतना चाहिए। इन्द्रिय-विजय
विनेन्द्रियजयं नैव कषायान् जेतुमीश्वरः । हन्यते हैमनं जाड्यं, न विना ज्वलितानलम् ॥ २४ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org