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चतुर्थ प्रकाश
११६ ३. माया-कषाय
असूनृतस्य जननी परशुः शील-शाखिनः । जन्म-भूमिरविद्यानां माया दुर्गतिकारणम् ।। १५ ।। कौटिल्यपटवः पापा मायया बकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना वञ्चयन्ते स्वमेव हि ॥ १६ ॥ तदार्जव-महौषध्या जगदानन्द हेतुना ।
जयेज्जगद्रोहकरी मायां विषधरीमिव ॥ १७ ॥ माया असत्य की जननी है, शील रूपी वृक्ष को नष्ट करने के लिए परशु-कुल्हाड़े के समान है, अविद्या की जन्मभूमि है और अधोगति का कारण है।
कुटिलता करने में कुशल और कपट करके बगुले के समान आचरण करने वाले पापी जगत् को ठगते हुए वस्तुतः अपने आपको ही ठगते हैं। - इसलिए जगत् के जीवों को आनन्द देने वाले आर्जव रूपी महान् औषध से, जगत् का द्रोह करने वाली सपिणी के समान माया पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। ४. 'लोभ-कषाय
आकरः सर्वदोषाणां गुण-ग्रसन-राक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थ-बाधकः ॥ १८ ॥ धनहीनः शतमेकं सहस्रं शतवानपि । सहस्राधिपतिर्लक्षं कोटि लक्षेश्वरोऽपि च ॥ १६ ॥ कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं, नरेन्द्रश्चक्रवत्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोपीन्द्रत्वमिच्छति ॥ २० ॥ इन्द्रत्वेऽपि हि सम्प्राप्ते, यदीच्छा न निवर्तते। मूले लघीयांस्तल्लोभः, सराव इव वर्धते ॥२१॥
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