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योग- शास्त्र
समस्त दुःख का कारण आत्मा सम्बन्धी अज्ञान है, अतः उसके विरोधी आत्म-ज्ञान से ही उसका क्षय होता है । जो प्रात्म-ज्ञान से रहित हैं, वे तपस्या करके भी दुःख का छेदन नहीं कर सकते ।
श्रयमात्मैव चिद्रपः शरीरी कर्मयोगतः । ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः ॥ ४ ॥ अयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः । तद्विजेतारं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥ ५ ॥
तमेव
वास्तव में आत्मा चेतन स्वरूप है । कर्मों के संयोग से यह शरीरधारी बनती है । जब यह श्रात्मा शुक्ल-ध्यान रूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर देती है, तो निर्मल होकर मुक्तात्मा बन जाती है ।
किन्तु कषायों और इन्द्रियों से पराजित होकर यह आत्मा संसार में रहकर शरीर धारण करती है और जब आत्मा कषायों तथा इन्द्रियों को जीत लेती है, तो उसी को प्रबुद्ध पुरुष मोक्ष कहते हैं ।
कषाय स्वरूप
स्युः कषाया क्रोधमानमाया लोभाः शरीरिणाम् । चतुर्विधास्ते प्रत्येकं भेदैः संज्वलनादिभिः ॥ ६ ॥ पक्षं संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । प्रत्याख्यानको वर्षं जन्मानन्तानुबन्धकः ॥ ७ ॥ वीतराग-यति-श्राद्ध - सम्यग्दृष्टित्व घातकाः । ते देवत्व मनुष्यत्व तिर्यक्त्व - नरकप्रदाः ॥ ८ ॥ शरीरधारी आत्माओं में चार कषाय होते हैं—- १. क्रोध, २. मान, ३. माया, और ४, लोभ । संज्वलन आदि के भेद से यह क्रोधादि कषाय चार-चार प्रकार के हैं
१. संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ । २. श्रप्रत्याख्यानावरण - क्रोध, मान, माया,
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लोभ ।
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