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तृतीय प्रकाश ७. भोगोपभोग-परिमाण के प्रतित्तार
सचित्तस्तेन सम्बद्धः, सम्मिश्रोऽभिषवस्तथा ।
दुःपक्वाहार इत्येते भोगोपभोगमानगाः ।। ६७ ।। १. सचित्त आहार करना, २. सचित्त के साथ सम्बद्ध आहार करना, ३. सचित्त मिश्रित पाहार करना, ४. अनेक द्रव्यों के संयोग से बने हुए सुरा-मदिरा आदि का सेवन करना, और ५. अधकच्चा-अधपक्का पाहार करना-यह पाँच अतिचार सचित्त भोजन त्यागी के लिए हैं । अनजान में या उपयोग शून्यता की स्थिति में इनका सेवन करना प्रतिचार है और जान-बूझकर सेवन करने से व्रत भंग हो जाता है। कर्मादान
अमी भोजनतस्त्याज्याः, कर्मतः खरकर्म तु । तस्मिन् पञ्चदशमलान्, कर्मादानानि संत्यजेत् ॥ ६८ ।। अङ्गार - वन - शकट - भाटक- स्फोट-जीविका । दन्त-लाक्ष-रस-केश-विष-वाणिज्यकानि च ।। ६६ ॥ यन्त्र-पीडा निर्लाञ्छनमसती-पोषणं तथा।
दव-दानं सरःशोष इति पञ्चदश त्यजेत् ।। १०० ।। भोगोपभोग-परिमाण-व्रत दो प्रकार से अंगीकार किया जाता हैभोजन से और कर्म से। ऊपर जो अतिचार बतलाये गये हैं वे भोजन सम्बन्धी हैं । कर्म सम्बन्धी अतिचार खरकर्म अर्थात् कर्मादान हैं । वे पन्द्रह हैं। श्रावक के लिए वह भी त्याज्य हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-१. अंगार-जीविका, २. वन-जीविका, ३. शकट-जीविका, ४. भाटकजीविका, ५. स्फोट-जीविका, ६. दन्त-वाणिज्य, ७. लाक्षा-वाणिज्य, ८. रस-वाणिज्य, ६, केश-वाणिज्य, १०. विष-वाणिज्य, ११. यंत्रपीलनकर्म, १२. 'निलांछन-कर्म, १३. असतीपोषण-कर्म, १४. दव-दान, मौर .१५. सर-शोष्ण-कर्म ।
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