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तृतीय प्रकाश
१०५ समस्त कार्यों से निवृत्त होकर वह विशुद्ध आत्मा-श्रावक गुरु की सेवा में उपस्थित होकर गुरुदेव को भक्ति पूर्वक वन्दन-नमस्कार करे और अपने ग्रहण किए हुए प्रत्याख्यान को उनके समक्ष प्रकट करे ।
अभ्युत्थानं तदालोकेऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलिसंश्लेषः, स्वयमासनढौकनम् ।। १२५ ।। पासनाभिग्रहो भक्त्या वन्दना पर्युपासना।
तद्यानेऽनुगमश्चेति प्रतिपत्तिरियं गुरोः ॥ १२६ ।। गुरु को देखते ही खड़े हो जाना, आने पर सामने जाना, दूर से ही मस्तक पर अंजलि जोड़ना, बैठने के लिए स्वयं प्रासन प्रदान करना, गुरु के बैठ जाने के बाद बैठना, भक्ति पूर्वक वंदना और उपासना करना, उनके गमन करने पर कुछ दूर तक अनुगमन करना, यह सब गुरु की भक्ति है। दिन-चर्या
ततः प्रतिनिवृत्तः सन् स्थानं गत्वा यथोचितम् ।
सुधीधर्माविरोधेन, विदधीतार्थ-चिन्तनम् ।। १२७ ॥ धर्म स्थान से लौटकर, प्राजीविका के स्थान में जाकर बुद्धिमान् श्रावक इस प्रकार धनोपार्जन करने का प्रयत्न करे कि उसके धर्म एवं व्रत-नियमों में बाधा न पहुंचे।
ततो माध्याह्निकी पूजां कुर्यात् कृत्वा च भोजनम् । तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् ॥ १२८ ।।
त्पर र मध्याह्न कालीन साधना करे और फिर भोजन करके शास्त्र वेत्ताओं के साथ शास्त्र के अर्थ का विचार करे ।
ततश्च सन्ध्यासमये, कृत्वा देवार्चनं पुनः । कृतावश्यककर्मा च, कुर्यात्स्वाध्यायमुत्तमम् ॥ १२६ ।।
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