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तृतीय प्रकाश
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- संसार परिभ्रमण सभी जीवों के लिए दुःखमय है। भवचक्र में पड़ा हुआ कोई भी प्राणी सुखी नहीं रहता । अतः स्थिर चित्त से इस प्रकार विचार करता हुआ श्रावक सब जीवों के लिए मोक्ष की कामना करे, जहाँ स्वाभाविक रूप से सुख का ही सद्भाव है ।
संसर्गेऽप्युपसर्गाणां दृढ-व्रत - परायणः ।
धन्यास्ते कामदेवाद्याः श्लाघ्यास्तीर्थकृतामपि ॥ १३८ ।। निद्रा त्याग के पश्चात् ऐसा भी विचार करना चाहिए कि "उपसर्गों की प्राप्ति होने पर भी अपने व्रत के रक्षण और पालन में दृढ़ रहने वाले कामदेव आदि श्रावक तीर्थ करों की प्रशंसा के पात्र बने थे। अतः वे धन्य हैं।"
जिनो देवः कृपा धर्मो गुरवो यत्र साधवः।
श्रावकत्वाय कस्तस्मै न श्लाघयेताविमूढधीः ॥ १३६ ॥ श्रावकत्व की प्राप्ति होने पर वह वीतराग जिनेन्द्र को देव, दया को धर्म और पंच महाव्रतधारी साधु को गुरु के रूप में स्वीकार करता है । ऐसे शुद्ध देव, गुरु और धर्म को मानने वाले श्रावक की कौन बुद्धिमान प्रशंसा नहीं करेगा? श्रावक के मनोरथ
जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भूवं चक्रवर्त्यपि । . स्यां चेटोपि दरिद्रोपि, जिनधर्माधिवासितः ॥ १४० ॥ - जैन-धर्म से वंचित होकर मैं चक्रवर्ती भी न होऊँ, किन्तु जैन-धर्म को प्राप्त करके मुझे दास होना और दरिद्र होना भी स्वीकार है।
त्यक्तसंगो जीर्णवासा, मलक्लिन्नकलेवरः । भजन् माधुकरी वृत्ति, मुनिचर्यां कदा श्रये ॥ १४१ ॥ त्यजन् दुःशील-संसर्ग, गुरुपाद-रजः स्पृशन् । कदाऽहं योगमभ्यस्यन्, प्रभवेयं भवच्छिदे ॥ १४२ ॥
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