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तृतीय प्रकाश
१०७ को दिन-रात गीधों और सियालों आदि से रक्षा करनी पड़े। उसके भोग करने का अवसर ही न मिले । ..
अगर काम स्त्री-शरीर रूपी शस्त्र से भी सारे जगत् को जीतना चाहता है, तो वह मूढ़ पिच्छ रूप शस्त्र क्यों नहीं ग्रहण करता ? अभिप्राय यह है कि काम अगर समग्र विश्व को जीतना चाहता है, तो मल-मूत्र आदि से भरे हुए और कठिनाई से प्राप्त होने वाले स्त्री-शरीर को अपना शस्त्र बनाने के बजाय काकादि के पिच्छों को, जो ऐसे अपवित्र और दुर्लभ नहीं है, अपना शस्त्र बना लेता तो कहीं बेहतर होता । स्त्री-शरीर में तो काकादि के पिच्छों के बराबर भी सार नहीं है।
टिप्पण-जैनागम में 'लिंग' और 'वेद' दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। लिंग का अर्थ 'आकार' है और वेद का अभिप्राय 'वासना' है। अतः पतन का कारण लिंग नहीं, वेद है । आकार-भले ही स्त्री का हो या पुरुष का, पतन का कारण नहीं है, पतन का कारण है-वासना। अतः स्त्री बुरी नहीं है । वह केवल वासना की साकार मूर्ति नहीं है, त्याग-तप एवं सेवा की प्रतिमा भी है। वह भी पुरुष की तरह साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर सकती है,। अतः उसे निन्दा एवं प्रताड़न के योग्य समझना भारी भूल है ।
प्रश्न हो सकता है कि फिर पूर्वाचार्यों एवं प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ने नारी की निन्दा क्यों की? इसका समाधान यह है कि मध्य युग में नारी को भोग-विलास का साधन मान लिया गया था और सन्त भी इस सामन्तवादी विचारधारा से अछूते नहीं रह पाए। उन्होंने जब भी वासना की निन्दा की तो उसके साथ स्त्री के शरीर का सम्बन्ध जोड़ दिया।
वस्तुत: देखा जाए तो जैसे-पुरुष के लिए स्त्री का शरीर विकार भाव जागृत करने का निमित्त बन सकता है, उसी प्रकार पुरुष का
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