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तृतीय प्रकाश
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सर्वोत्कृष्ट और महान् पुण्य का उपभोग करता हुआ अानन्द में रहता है ।
देव आयु पूर्ण होने पर वह वहां से च्युत होकर, मनुष्य गति में जन्म लेता है और दुर्लभ भोगों को भोग कर तथा संसार से विरक्त होकर वह शुद्धात्मा उसी भव में या सात-पाठ भवों में मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उपसहार
इति संक्षेपतः सम्यक्-रत्न-त्रयमुदीरितम् ।
सर्वोऽपि यदनासाद्य, नासादयति निर्वृ तिम् ।। १५५ ।। जिस रत्नत्रय को प्राप्त किये बिना कोई भी आत्मा मुक्ति नहीं पा सकता, उस रत्न-त्रय—सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र की साधना का संक्षेप में वर्णन किया गया है।
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