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तृतीय प्रकाश
१११ तथा मोक्ष और संसार पर समबुद्धि रख सकूँ ? अर्थात् समस्त दु:खों का निवारक और समस्त सुख का कारण समभाव मुझे कब प्राप्त होगा ?"
यह मनोरथ मोक्ष रूपी महल में प्रविष्ट होने के लिए निश्रेणिनसैनी के समान गुणस्थानों की श्रेणी पर उत्तरोत्तर आरूढ़ होने के लिए आवश्यक हैं। परमानन्द रूपी लता के कंद हैं। श्रावक को इन मनोरथों का सदा चिन्तन करना चाहिए।
इत्याहोरात्रिकी चर्यामप्रमत्तः समाचरन् ।
यथावदुक्तवृत्तस्थो गृहस्थोऽपि विशुध्यति ॥ १४७ ॥ इस प्रकार दिन-रात सम्बन्धी चर्या का अप्रमत्त रूप से सेवन करने वाला और पूर्वोक्त व्रतों में स्थिर रहने वाला गृहस्थ, साधु न होने पर भी पापों का क्षय करने में समर्थ होता है। साधना विधि
सोऽथावश्यक-योगानां, भंगे मृत्योरथागमे । कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् ॥ १४८ ॥ जन्म-दीक्षा-ज्ञान-मोक्ष-स्थानेषु श्रीमदर्हताम् । तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवजिते ॥ १४६ ॥ त्यक्त्वा चतुविधाहारं, नमस्कार-परायणः । आराधनां विधायोच्चैश्चतुः शरणमाश्रितः ॥ १५० ।। इहलोके परलोके जीविते मरणे तथा। . त्यक्त्वाशंसां निदानं च, समाधिसुधयोक्षितः ॥ १५१ ॥ परीषहोपसर्गेभ्यो निर्भीको जिनभक्ति भाक् ।
प्रतिपद्येत मरणमानन्दः श्रावको यथा ॥ १५२ ।। श्रावक जब अवश्य करने योग्य संयम-व्यापारों का सेवन करने में असमर्थ हो जाय अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ पहुँचे, तब वह सर्वप्रथम संलेखना करे अर्थात् आहार का त्याग करके शरीर और
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