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योग-शास्त्र
महानिशायां प्रकृते, कायोत्सर्गे पुराद्वहिः । स्तंभवत्स्कंधकर्षणं, वृषाः कुर्युः कदा मयि ॥ १४३ ।। वने पद्मासनासीनं, क्रोडस्थित-मृगार्भकम् ।। कदाऽऽघ्रास्यंति वक्त्रे मां जरन्तो मृगयूथपाः ॥ १४४ ॥ शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि । मोक्षे भवे भविष्यामि निविशेषमतिः कदा ॥ १४५ ॥ अधिरौढु गुणश्रेणि, निश्रेणी मुक्तिवेश्मनः। . .
परानन्दलताकन्दान्, कुर्यादिति मनोरथान् ॥ १४६ ॥ श्रावक को प्रतिदिन यह मनोरथ करना चाहिए कि "मेरे जीवन में वह मंगलमय दिन कब आएगा, जब मैं समस्त पर-पदार्थों के संयोगों का त्यागी, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र का धारक, शरीर के स्नान आदि संस्कार से निरपेक्ष होकर मधुकरी वृत्ति युक्त मुनिचर्या का अवलम्बन लूगा !"
"अनाचारियों की संगति का त्याग करके, गुरुदेव की चरण-रज का स्पर्श करता हुआ, योग का अभ्यास करके जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने में मैं कब समर्थ होऊँगा ?"
ऐसा अवसर कब आएगा कि "मैं घोर रात्रि के समय, नगर से बाहर निश्चल भाव से कार्योत्सर्ग में लीन रहूँ और मुझे स्तंभ-खंभा समझ कर बैल मेरे शरीर से अपना कंधा घिसें ? मुझे ध्यान की ऐसी तल्लीनता और निश्चलता कब प्राप्त होगी ?"
अहा, कब वह अवसर प्राप्त होगा कि "मैं वन में पद्मासन जमाकर स्थित होऊँ, हिरन के बच्चे मेरी गोद में आकर बैठ जाएँ और मृगों की टोली का मुखिया वृद्ध मृग मुझे जड़ समझ कर मेरे मुख को सूघे ?"
ऐसा शुभ अवसर कब आएगा कि "मैं शत्रु और मित्र पर, तृण और स्त्रियों के समूह पर, स्वर्ण और पाषाण पर, मणि और मिट्टी पर
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