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तृतीय प्रकाश १२. अतिथि संविभाग-व्रत के अतिचार
सच्चित्ते क्षेपणं तेन, पिधानं काललङ्घनम् ।
मत्सरोऽन्योपदेशश्च, तुर्ये शिक्षाव्रते स्मृताः ॥ ११८ ॥ १. पाहारार्थ मुनि के आने पर देय वस्तु को सचित्त पदार्थ के ऊपर रख देना । २. सचित्त पदार्थ से ढंक देना । ३. मुनियों की भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन बनाना। ४. दूसरे दाता के प्रति या मुनि के प्रति ईर्षा-भाव से प्रेरित होकर दान देना, तथा ५. 'यह पराई वस्तु है'-ऐसा बहाना करके न देना, यह चौथे शिक्षा व्रत के पाँच अतिचार हैं।
महाश्रावक एवं व्रतस्थितो भक्त्या, सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् ।
दयाया चातिदीनेषु, महाश्रावक उच्यते ।। ११६ ।। इस प्रकार बारह व्रतों में स्थित तथा भक्तिपूर्वक सात क्षेत्रों मेंपोषधशाला, धर्मस्थान, आगम, श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी के निमित्त, तथा करुणापूर्वक अति दीन जनों को दान देने वाला 'महाश्रावक' कहलाता है। त्याग की प्रशंसा
यः सद् बाह्यमनित्यं च, क्षेत्रेषु न धनं वपेत् । ____ कथं वराकश्चारित्रं, दुश्चरं सः समाचरेत् ॥ १२० ॥
जो धन विद्यमान है, वह बाह्य शरीर से भिन्न है और अनित्य है। प्रतः जो व्यक्ति उत्तम पात्र के मिलने पर भी ऐसे धन का त्याग नहीं कर सकता, वह दुश्चर चारित्र का क्या पालन करेगा? चारित्र के लिए तो सर्वस्व का और साथ ही आन्तरिक विकारों का भी परित्याग करना पड़ता है।
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