________________
तृतीय प्रकाश
१. अपध्यान
वैरिघातो नरेन्द्रत्वं, पुरघाताग्निदीपने ।
खेचरत्वाद्यपध्यानं, मुहर्तात्परतस्त्यजेत् ।। ७५ ॥ वैरी की घात करूं, राजा हो जाऊँ, नगर को नष्ट कर दू, आग लगा दूँ, आकाश में उड़ने की विद्या प्राप्त हो जाय तो आकाश में उड़-विद्याधर हो जाऊँ इत्यादि दुर्ध्यान कदाचित् आ जाए तो उसे एक मुहूर्त से ज्यादा न टिकने दे। प्रथम तो इस प्रकार का दूषित विचार मन में आने ही नहीं देना चाहिए और कदाचित् आ जाए तो उसे ठहरने नहीं देना चाहिए । २. पापोपदेश
वृषभान् दमय क्षेत्रं कृष षण्ढय वाजिनः ।
दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोऽयं न युज्यते ।। ७६ ।। बछड़ों का दमन करो खेत जोतो, घोड़ों को नपुंसक करो, इस प्रकार का पापमय उपदेश देना उचित नहीं है । अपने पुत्र, भाई, हलवाह
आदि को ऐसा उपदेश देने से गृहस्थ बच नहीं सकता, अतः यहाँ 'दाक्षिण्याविषये' प्रद विशेष अभिप्राय से प्रयुक्त किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि बिना प्रयोजन अपनी चतुराई प्रकट करने के लिए इस प्रकार का उपदेश देना 'पापोपदेश' नामक अनर्थ-दण्ड कहलाता है । स्मरण रखना चाहिए कि अनर्थ-दण्ड वहीं होता है, जहाँ बिना किसी प्रयोजन के पाप किया जाता है। आगे भी ऐसा ही समझना चाहिए। ३. हिंसोपकरण दान
यन्त्र-लाङ्गल-शस्त्राग्निमुशलोदूखलादिकम् ।
दाक्षिण्याविषये हिंस्रं, नार्पयेत् करुणापरः ।। ७७ ।। करुणा में तत्पर श्रावक को बिना प्रयोजन, यंत्र, हल, शस्त्र, अग्नि, मूसल, ऊखल, चक्की आदि हिंसाकारी साधन नहीं देना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org