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तृतीय प्रकाश
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टिप्पण - संसार के अधिकांश दुःखों का कारण विषय भाव - राग-द्वेषमय परिणाम है । जब यह विषय भाव दूर हो जाता है और अन्तःकरण समभाव से पूरित हो जाता है, तब आत्मा को अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है । अतः चित्त में समभाव को जागृत करना ही धर्मसाधना का मुख्य उद्देश्य है । समभाव की जागृति के लिए निरन्तर नियमित अभ्यास अपेक्षित है और वही अभ्यास सामायिक व्रत है ।
गृहस्थ - श्रावक सब प्रकार के अशुभ ध्यान और पापमय कार्यों का परित्याग करके दो घड़ी तक समभाव में - श्रात्मचिन्तन, स्वाध्याय श्रादि में व्यतीत करता है । यही गृहस्थ का 'सामायिक व्रत' है । सामायिक का फल
सामायिकव्रतस्थस्य, गृहिणोऽपि स्थिरात्मनः
चन्द्रावतंसकस्येव, क्षीयते कर्म सञ्चितम् ॥ ८३ ॥
सामायिक व्रत में स्थित, चंचलता-रहित परिणाम वाले गृहस्थ के भी पूर्व संचित कर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार राजर्षि चन्द्रावतंसक के नष्ट हुए थे 1
देशावकाशिक-व्रत
दिग्वते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः ।
दिने रात्रौ च देशावकाशिक - व्रतमुच्यते ॥ ८४ ॥
. दिग्वत नामक छठे व्रत में गमनागमन के लिए जो परिमाण नियत किया गया है, उसे दिन तथा रात्रि में संक्षिप्त कर लेना 'देशावकाशिक व्रत' है ।
टिप्पण - दुनिया बहुत विस्तृत है । कोई भी एक मनुष्य सब जगह फैलकर वहाँ की परिस्थितियों से लाभ नहीं उठा सकता। फिर भी मानव मन में व्यक्त या अव्यक्त रूप से ऐसी तृष्णा बनी रहती है और उसके कारण मन व्याकुल, क्षुब्ध और संतप्त बना रहता है । इस स्थिति
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