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. तृतीय प्रकाश कण्टको दारुखण्ड च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तनिपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ ५१ ।। विलग्नश्च गले वालः, स्वर-भंगाय जायते ।
इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशि भोजने ।। ५२ ॥ काँटे और लकड़ी के टुकड़े से गले में पीड़ा उत्पन्न होती है । शाक प्रादि व्यंजनों में बिच्छू गिर जाए तो वह तालु को वेध देता है । गले में बाल फँस जाए तो स्वर भंग हो जाता है । रात्रि में भोजन करने से यह और ऐसे अन्य दोष प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।
नाप्रेक्ष्य सूक्ष्मजन्तूनि, निश्यद्यात्प्रासुकान्यपि ।
अप्युद्यत्-केवलज्ञानै हतं यन्निशाशनम् ।। ५३ ॥ रात्रि में प्रासुफ--अचित्त पदार्थों का भी भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुंथुवा प्रादि सूक्ष्म जन्तु दिखाई नहीं देते। केवलज्ञानियों ने भी, जो सूक्ष्म जन्तुओं को और उनके भोजन में गिरने को जानते हैं, रात्रि भोजन स्वीकार नहीं किया है।
धर्मविन्नैव भुञ्जीत, कदाचन दिनात्यये ।
बाह्या अपि निशाभोज्यं, यदभोज्यं प्रचक्षते ॥ ५४ ॥ धर्मज्ञ पुरुष को दिन अस्त होने पर कदापि भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैनेतर जन भी रात्रि भोजन को अभक्ष्य कहते हैं, अर्थात् वे भी रात्रि-भोजन को त्याज्य मानते हैं । अन्य मतों का अभिमत - त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः।
तत्करैः पूतमखिलं, शुभं कर्म समाचरेत् ॥ ५५ ॥ ... वेद के वेत्ता कहते हैं कि सूर्य तेजोमय है। उसमें ऋक्, यजु
पौर सामवेद तीनों का तेज निहित है। अतः सूर्य की किरणों से पवित्र
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