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प्रथम प्रकाश
तत्त्व हैं । पुण्य और पाप की अलग गणना करने पर नौ तत्त्व भी कहे जाते हैं । इन तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप का संक्षेप से अथवा विस्तार से ज्ञान होना - सम्यग्ज्ञान है, ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है ।
सम्यग्दर्शन का स्वरूप
रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ।। १७ ।।
वीतराग भगवान् द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर रुचि होना सम्यग्दर्शनं कहलाता है । सम्यग्दर्शन दो प्रकार से होता है- १. निसर्ग से और २. गुरु के अधिगम से ।
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टिप्पण - संसारी जीव अनादि काल से भव-भ्रमण कर रहा है और विविध प्रकार की वेदनाएँ एवं व्यथाएँ सहन कर रहा है । जैसे किसी पहाड़ी नदी के जल प्रवाह में पड़ा हुआ पाषाण खण्ड बहता- बहता और अनेक चट्टानों से टकराता - टकराता अकस्मात् गोल-मटोल हो जाता है, उसी प्रकार भव-भ्रमण करता हुआ जीव कदाचित् ऐसी स्थिति में श्रा जाता है कि उसके कर्मों की स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम की शेष रह जाती है । यह स्थिति प्राप्त होने पर वह जीव राग-द्वेष की अनादिकालीन दुर्भेद्य ग्रंथि को भेदने के लिए उद्यत होता है । यह यथा प्रवृत्तिकरण कहलाता है । उस समय यदि राग-द्वेष की तीव्रता हो जाती है तो . किनारे श्राया हुआ भी फिर मँझधार में डूब जाता है । किन्तु जो भव्य आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त करके आत्मा के वीर्य को प्रस्फुटित करता है, वह कर्मों की उक्त स्थिति को कुछ और कम करके अपूर्वकरण को प्राप्त करता है । प्रपूर्वकरण के पश्चात् उस दुर्भेद्य ग्रंथि का भेदन हो जाता है और अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है । इस प्रक्रिया से उत्पन्न होने वाला दर्शन निसर्गज सम्यग्दर्शन
कहलाता है ।
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