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प्रथम प्रकाश
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पहले नींव मजबूत कर ली जाती है । नींव मजबूत न की जाय तो दीवार के किसी भी समय गिर जाने का खतरा रहता है । इसी प्रकार गृहस्थधर्म को अंगीकार करने से पहले आवश्यक जीवन-शुद्धि कर लेना उचित है । यहाँ जो बातें बतलाई गई हैं, उन्हें गृहस्थ-धर्म की नींव या प्राधारभूमि समझना चाहिए । इस आधार र-भूमिका पर गृहस्थ धर्म का जो भव्य प्रासाद खड़ा होता है, वह स्थायी होता है । उसके गिरने का भय नहीं रहता ।
इन्हें मार्गानुसारी के ३५ गुण कहते हैं । इनमें कई गुण ऐसे हैं जो केवल लौकिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं । उन्हें गृहस्थ धर्म का आधार बतलाने का अर्थ यह है कि वास्तव में जीवन एक अखण्ड वस्तु है । श्रतः लोक व्यवहार में और धर्म के क्षेत्र में उसका विकास एक साथ होता है । जिसका व्यावहारिक जीवन पतित और गया-बीता होगा, उसका धार्मिक जीवन उच्च श्रेणी का नहीं हो सकता । अतः व्रतमय जीवन यापन करने के लिए व्यावहारिक जीवन को उच्च बनाना परमावश्यक है । जब व्यवहार में पवित्रता आती है, तभी जीवन धर्मसाधना के योग्य बन पाता है ।
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